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Friday, March 20, 2020

कोरोना महामारी एक सोच एक संदर्भ

कोरोना विश्वमारी –महामारी 
विश्व में महामारीयों का इतिहास देखें तो ईशा से ४३७ वर्ष पूर्व में हुई महामारी जिसे प्लेग ऑफ़ एथेंस कहा गया था से आरम्भ होता है, चूँकि जो रिकार्डेड है उसका ही जिक्र उचित रहेगा, १६५ ई. में अन्तोनीन प्लेग, २५१ ई. में सैप्रियाँ प्लेग, ५४१ ई. में प्लेग ऑफ़ जुस्तिनियन १६६५ का ग्रेट प्लेग ऑफ़ लन्दन इत्यादि महामारी देखने को मिलती है पर विश्वभर जिसके प्रभाव में आया हो वह विश्वमारी १६१८-१९ में चेचक, १८१९ में हैजा १९१९ में स्पेनी फ्लु जिससे करीब एक तिहाई जनसंख्या प्रभावित हुई थी और विश्व भर में ५ करोड़ लोग की मौत हुई थी | अब २०१९-२० में कोरोना आया है, उपरोक्त महामारियों के वर्ष को देखता हूँ तो सदी के १९ -२० वे वर्ष में ही यह विश्वमारी होती है |
जब कभी आज का इतिहास लिखा जायगा तब कोरोना के कारण विश्वभर में हुए लॉक्ड डाउन की चर्चा अवश्य होगी, ऐसा भय का वातावरण और इस0 महामारी से लड़ने हेतु विश्व भर में तैयारी एवं पूरे विश्व का बंदी बन जाना अकल्पनीय हैं, विश्व में कई साईं फाई सिनेमा बने हैं उपन्यास लिखे गए हैं पर किसी की कल्पना में भी ऐसा नहीं हुआ की पूरा विश्व बंदी बन जाय, हाँ करीब ६ साल पहले एक हास्य टीवी सीरियल जरुर आया था “द लास्ट मैन ओन द अर्थ” इसमें बताया था की डेड बॉडी नाम का एक वायरस पुरे विश्व को समाप्त कर देता है और कुछ मुट्ठी भर लोग ही बचते हैं | कोई सोच सकता है की हास्य सीरियल एक दिन सच होने जा रहा है |
जब मैं गंम्भीरता से सोच रहा था तो मुझे दुर्गा सप्तशती की याद हो आई जिसमे आठवें अध्याय में रक्तबीज नामक एक राक्षस का वर्णन है, बीज हम कहते हैं वह जिससे अनेक उत्पन्न हों, जो मूल हो, रक्त बीज एतक राक्षस है जिसकी रक्त की एक बूंद से एक नया रक्तबीज पैदा हो जाता है, ज्यों ज्यों माँ दुर्गा उसका वध करना चाहती है उसके सर को काटती है तो रक्त की बूंदों के स्पर्श से हजारों रक्तबीज उत्पन्न होते जाते हैं | क्या उस युग में बायोलॉजिकल वार की पुष्ठी होती है, रक्त बीज क्या मेन मेड वायरस था, जो रक्त के स्पर्श से फैलता था, ज्यूँ आज कोरोना स्पर्श मात्र से फ़ैल रहा है, यह बात भी हो रही है की कोरोना का कोविड १९ वायरस मानव निर्मित है जिसे चीन ने युद्ध के लिए विकसित किया था पर यह फ़ैल गया | क्या यह चीन रूपी शुम्भ निशुम्भ का रक्तबीज है | माँ दुर्गा ने इसके वध को फिर काली रूप का धारण कर इसे आयसोलेट किया और इसकी प्रत्येक रक्त की बूंदों को किसी से भी स्पर्श नहीं होने दिया और अपने खप्पर में ले पान कर गयी | कोरोना के वध का भी  तो यही उपाय आज दिख रहा है | एक बात यूँ ही ख्याल में आयी ये मान्यता है कि जग्गनाथ जी को वायरल बुखार होता है और उन्हें 14 दिन के लिए अनसार में रखा जाता है क्या यह अनासर ही आइसोलेशन है क्या आज के वैज्ञानिक तथ्य में चली मान्यता का कोई संबंध हो सकता है।
प्रधान मंत्री ने अपने आह्वाहन में इस वायरस को अकय्सोलेट करने की बात कही है, हर व्यक्ति को इस रक्तबीज से अलग होना है, कुछ आवश्यक बातें मैं भी बताना चाहूँगा जो की प्रधान मंत्री एवं सरकारी दिशा निर्देश के साथ आवश्यक हैं,| 
१. प्रत्येक घर में काम वाली बाई, पपेर बॉय, दूध वाला इत्यादि आते हैं वे डोर बेल बजाते हैं डोर नॉब को छूते हैं अगर भूल चुक से वे संक्रमित हैं तो वायरस नॉब पर बेल पर आ जायगा अतः आप इसे हर व्यक्ति के आने के बाद सेनिटायिज कीजिये |
२. जैसा की सभी ने कहा अनावश्यक बाहर न निकलें, इस वायरस के चैन को हमे तोडना है तभी रक्तबीज का वध होगा, अतः घर में रह कर हो सके तो दुर्गा सप्तशती के मन्त्रों का पथ कीजिये इसमें गजब की उर्जा है और यह सकारात्मक वेव्स प्रसारित करती हैं न हो तो ॐ का पाठ भी ठीक होगा | 
जघान रक्तबीजं तं चामुंडापीतशोणितं | स पपात महिपृष्ठे शस्त्रसंघसमाहतः |

मैंने दुर्गा स्वरुप कुल देवी जीणमाता का रक्षा स्त्रोत्र संस्कृत में भुजंगप्रयत एवं अनुष्ठभ छंद में लिखा है उसका भी पाठ करने से आपदा दूर होती है| अगर किसी मित्र को चाहिए तो संपर्क कर सकते हैं।
३. ज्यादा समाचार देखने से पढने से अनावश्यक माथे पर दबाब पड़ता है और अफवाह से भय, अतः सोशल दुरी के साथ सोशल मीडिया से भी दूरी रखना उचित होगा | क्योंकि आजकल व्हात्सप्प और फेसबुक पर जितने ज्ञान मिलते हैं उतने बड़े बड़े रिसर्चर भी नहीं दे सकते |
अतः भय मुक्त होकर कम से कम आने वाले दो तीन सप्ताह आप अपनी जिंदगी जियें अपने परिवार के साथ समय बिताएं आपको बहुत शांति मिलेगी, आप भी देख पाएंगे की परिवार से जुड़ने का कितना फायदा है |
नमन |

Monday, March 9, 2020

होली की महत्ता एवं वैदिक संदर्भ

होली की महत्ता एवं वैदिक –पौराणिक सन्दर्भ

भारत के दो प्रमुख त्यौहार कृषि पर आधारित हैं जो सृष्टि के प्रारंभ से ही कृषि के अविष्कार के समय से ही मनाये जाते रहे हैं जिन्हें बासंती नवशस्येष्टि और शरद नवशस्येष्टि पर्व कहा गया है जो कालांतर में दीपावली/होली कहा जाने लगा, यह पर्व विशेष महत्व रखता है, दीपों का प्रकाश हमारे अंतःकरण में व्याप्त अज्ञान को हटा कर ज्ञान के प्रकाश का द्योतक है| वहीँ होली में जलाई गयी होलिका की अग्नि हमारे द्वेष, वैमनष्यता को जला कर मैत्री भाव स्थापित करती है | कहा गया है कि प्रत्येक परिवार को अग्नि अवश्य रखनी चाहिए और उसका पूजन भी करना चाहिए | अथर्व वेद में प्रारंभ इसकि अराधना से ही हुआ है| अथर्व वेद एकादस काण्ड ब्रह्मोदैन  सूक्त मन्त्र-१ से  प्रारंभ है | अग्नि तीन प्रकार से बताई गयी है, एक अग्नि ज्वाला के रूप में जिससे भोजन पकाया जा सके, दुसरे अग्नि लहू में ताकि दुश्मनों से डट कर मुकाबला किया जा सके, तीसरे ज्ञान कि अग्नि, इसे अध्यात्मिक अग्नि भी कह सकते हैं |. नवशस्येष्टी पर्व तब मनाया जाता है जब फसल काटने को तैयार है, और भारत में काटने वाली रबी की फसल के बाद होली और खरीफ की फसल के बाद दीपावली मानते हैं और फसल को सर्वप्रथम अग्नि देव को समर्पित करते हैं |

वस्तुतः होली एक साँस्कृतिक पर्व है. इस का प्राचीन नाम ‘वासन्ती नवसस्येष्टि ’ है। वासन्ती + नव+ सस्य + येष्टी अर्थात( वासन्ती ) वसन्त ऋतु सम्बन्धी (नव) नयाँ (सस्य) अन्न (येष्टी) यज्ञ । अर्थात वसन्त ऋतु में तैयार होने वाले नए फसलों के द्वारा यज्ञ अर्थात देव पुजा करना। वसन्त ऋतु ( चैत-बैशाख) को मधुमास भी कहते हैं। इस ऋतु में जौचनेमटर आदि अनाज तैयार होते हैं। कृषक नयाँ अन्न पहले देवता को खिलाकर फिर खातेहैं। देवता को खिलाने का माध्यम ऋषियों ने यज्ञ को बताया है-‘ अग्निर्वै देवानां मुखं ’। यज्ञ में डाले गए अन्नघी शाकल्य आदि सुक्ष्म होकर देवताओं को प्राप्त होता है। श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय में कहा गया है–अन्न ही जीवों का पालन करता है और अन्न बर्षा से उत्पन्न होता है।

चैत्र कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को एक दूसरे के चेहरे पर रंग लगाकर  या जल में  घुले  हुए रंग को एक दूसरे पर डाल कर तथा परस्पर मिष्ठान्न का आदान-प्रदान कर इस पर्व को मनाने की परम्परा चली आ रही है। यह भी कहा जाता है कि इस पर्व के दिन पुराने मतभेदो वैमनस्य व शत्रुता आदि को भुला कर नये  मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का आरम्भ किया जाता है।

पौराणिक महत्व की बात करें तो होली का विभिन्न ग्रंथों में अलग अलग वर्णन मिलता है|

पूर्व भारत में होलिकादहन को भगवान कृष्ण द्वारा राक्षसी पूतना के वध दिवस के रुप में मनाया जाता हैतो दक्षिण भारत में मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। इसके पश्चात् कामदेव की पत्नी रति के दु:ख से द्रवित होकर भगवान शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया थाजिससे प्रसन्न होकर देवताओं ने रंगों की वर्षा की थी।

पौराणिक मान्यता यह भी है कि हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका ने भगवान से आग से न जलने का वरदान प्राप्त कर ली थी। हिरण्यकश्यपु घोर नास्तिक था। उस का पुत्र प्रह्लाद धर्मात्माईश्वरभक्त था। बाप-बेटे में सदैव अनमन होता रहता था. एकदिन हिरण्यकश्यपु के कहने पर होलिका अपने भतीजे प्रह्लाद को गोद में लेकर जलती हुयी चिता में प्रवेश की. परंतु वरदान प्राप्त होलिका आग में जलकर भस्म हो गयी और प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ.कहते हैं कि तब से होली मनाने कि परंपरा प्रारम्भ हुयी है।

होली सामुहिक पर्व है। इस पर्व पर प्राचीन काल में सब लोग मिलकर महायज्ञ किया करते थे और यज्ञकुंड की परिक्रमा करते हुए भजन गाते थेहर्षोल्लासपुर्वक परस्पर एक-दूसरे से गले मिलते थे। वस्तुतः हिरण्यकस्यपु की

ग्रामीण भाषा में झाड़ सहित के कच्चे चने को होरा वा होराहा कहा जाता है। चने आदि छिलके वाले अनाज को संस्कृत भाषा में होलककहा जाता हैजिसका स्त्रीलिंग में होलिका 'होता है। जिस भी अन्न के दाने में ढक्कन ( छिलका ) होता है उसे 'होलककहा जाता है और उसके अंदर के दाने को ‘प्रह्लाद’ कहते हैं। ‘ माता निर्माता भवति ’ होलिका को माता इसलिए कहते हैं कि छिलका ही प्रह्लाद का निर्माण करती है। जब होरा को आग में डाला जाता हैतब होलिका ( होलक ) यानि छिलका जल जाता हैपर प्रह्लाद बच जाता है। इसलिए बच्चे प्रसन्न होकर ‘होलिका माता की जय’ कहते हैं।

होली हमारी संस्कृति का प्रमुख पर्व हैजो शीत ऋतु के समापन और ग्रीष्म ऋतु के आगमन पर आता है। शीत ऋतु में त्वचा में आई खुश्की को एवं बंद पड़े रोम कूपों को खोलने के लिए होलिका-दहन के एक दिन बाद धुलंडी-उत्सव मनाया जाता है। जिसमें त्वचा पर फूलो के रससुगंधित औषधीय उबटनमिट्टीहल्दीअष्टगन्ध को लगाकर स्वच्छ जल से स्नान किया जाता हैजिससे रोमकूप खुल जाते हैं। साथ ही मन में जमी राग-द्वेषक्रोध रूपी गंदगी को नाचगाकर एवं एक-दूसरे से गले मिलकर भुला दिया जाता है। बड़े चाव से तरह तरह की मिठाइयाँ एवं पकवान बनाए जाते हैंएक दूसरे का मुख मीठा करते हैं।