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होली की महत्ता एवं वैदिक संदर्भ
होली की महत्ता एवं वैदिक –पौराणिक सन्दर्भ
भारत के दो प्रमुख त्यौहार कृषि पर आधारित हैं जो सृष्टि के प्रारंभ से ही कृषि के अविष्कार के समय से ही मनाये जाते रहे हैं जिन्हें बासंती नवशस्येष्टि और शरद नवशस्येष्टि पर्व कहा गया है जो कालांतर में दीपावली/होली कहा जाने लगा, यह पर्व विशेष महत्व रखता है, दीपों का प्रकाश हमारे अंतःकरण में व्याप्त अज्ञान को हटा कर ज्ञान के प्रकाश का द्योतक है| वहीँ होली में जलाई गयी होलिका की अग्नि हमारे द्वेष, वैमनष्यता को जला कर मैत्री भाव स्थापित करती है | कहा गया है कि प्रत्येक परिवार को अग्नि अवश्य रखनी चाहिए और उसका पूजन भी करना चाहिए | अथर्व वेद में प्रारंभ इसकि अराधना से ही हुआ है| अथर्व वेद एकादस काण्ड ब्रह्मोदैन सूक्त मन्त्र-१ से प्रारंभ है | अग्नि तीन प्रकार से बताई गयी है, एक अग्नि ज्वाला के रूप में जिससे भोजन पकाया जा सके, दुसरे अग्नि लहू में ताकि दुश्मनों से डट कर मुकाबला किया जा सके, तीसरे ज्ञान कि अग्नि, इसे अध्यात्मिक अग्नि भी कह सकते हैं |. नवशस्येष्टी पर्व तब मनाया जाता है जब फसल काटने को तैयार है, और भारत में काटने वाली रबी की फसल के बाद होली और खरीफ की फसल के बाद दीपावली मानते हैं और फसल को सर्वप्रथम अग्नि देव को समर्पित करते हैं |
वस्तुतः होली एक साँस्कृतिक पर्व है. इस का प्राचीन नाम ‘वासन्ती नवसस्येष्टि ’ है। वासन्ती + नव+ सस्य + येष्टी अर्थात( वासन्ती ) वसन्त ऋतु सम्बन्धी (नव) नयाँ (सस्य) अन्न (येष्टी) यज्ञ । अर्थात वसन्त ऋतु में तैयार होने वाले नए फसलों के द्वारा यज्ञ अर्थात देव पुजा करना। वसन्त ऋतु ( चैत-बैशाख) को मधुमास भी कहते हैं। इस ऋतु में जौ, चने, मटर आदि अनाज तैयार होते हैं। कृषक नयाँ अन्न पहले देवता को खिलाकर फिर खातेहैं। देवता को खिलाने का माध्यम ऋषियों ने यज्ञ को बताया है-‘ अग्निर्वै देवानां मुखं ’। यज्ञ में डाले गए अन्न, घी शाकल्य आदि सुक्ष्म होकर देवताओं को प्राप्त होता है। श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय में कहा गया है–अन्न ही जीवों का पालन करता है और अन्न बर्षा से उत्पन्न होता है।
चैत्र कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को एक दूसरे के चेहरे पर रंग लगाकर या जल में घुले हुए रंग को एक दूसरे पर डाल कर तथा परस्पर मिष्ठान्न का आदान-प्रदान कर इस पर्व को मनाने की परम्परा चली आ रही है। यह भी कहा जाता है कि इस पर्व के दिन पुराने मतभेदो , वैमनस्य व शत्रुता आदि को भुला कर नये मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का आरम्भ किया जाता है।
पौराणिक महत्व की बात करें तो होली का विभिन्न ग्रंथों में अलग अलग वर्णन मिलता है|
पूर्व भारत में होलिकादहन को भगवान कृष्ण द्वारा राक्षसी पूतना के वध दिवस के रुप में मनाया जाता है, तो दक्षिण भारत में मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। इसके पश्चात् कामदेव की पत्नी रति के दु:ख से द्रवित होकर भगवान शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया था, जिससे प्रसन्न होकर देवताओं ने रंगों की वर्षा की थी।
पौराणिक मान्यता यह भी है कि हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका ने भगवान से आग से न जलने का वरदान प्राप्त कर ली थी। हिरण्यकश्यपु घोर नास्तिक था। उस का पुत्र प्रह्लाद धर्मात्मा, ईश्वरभक्त था। बाप-बेटे में सदैव अनमन होता रहता था. एकदिन हिरण्यकश्यपु के कहने पर होलिका अपने भतीजे प्रह्लाद को गोद में लेकर जलती हुयी चिता में प्रवेश की. परंतु वरदान प्राप्त होलिका आग में जलकर भस्म हो गयी और प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ.कहते हैं कि तब से होली मनाने कि परंपरा प्रारम्भ हुयी है।
होली सामुहिक पर्व है। इस पर्व पर प्राचीन काल में सब लोग मिलकर महायज्ञ किया करते थे और यज्ञकुंड की परिक्रमा करते हुए भजन गाते थे, हर्षोल्लासपुर्वक परस्पर एक-दूसरे से गले मिलते थे। वस्तुतः हिरण्यकस्यपु की
ग्रामीण भाषा में झाड़ सहित के कच्चे चने को होरा वा होराहा कहा जाता है। चने आदि छिलके वाले अनाज को संस्कृत भाषा में होलक' कहा जाता है, जिसका स्त्रीलिंग में होलिका 'होता है। जिस भी अन्न के दाने में ढक्कन ( छिलका ) होता है , उसे 'होलक' कहा जाता है और उसके अंदर के दाने को ‘प्रह्लाद’ कहते हैं। ‘ माता निर्माता भवति ’ होलिका को माता इसलिए कहते हैं कि छिलका ही प्रह्लाद का निर्माण करती है। जब होरा को आग में डाला जाता है, तब होलिका ( होलक ) यानि छिलका जल जाता है, पर प्रह्लाद बच जाता है। इसलिए बच्चे प्रसन्न होकर ‘होलिका माता की जय’ कहते हैं।
होली हमारी संस्कृति का प्रमुख पर्व है, जो शीत ऋतु के समापन और ग्रीष्म ऋतु के आगमन पर आता है। शीत ऋतु में त्वचा में आई खुश्की को एवं बंद पड़े रोम कूपों को खोलने के लिए होलिका-दहन के एक दिन बाद धुलंडी-उत्सव मनाया जाता है। जिसमें त्वचा पर फूलो के रस, सुगंधित औषधीय उबटन, मिट्टी, हल्दी, अष्टगन्ध को लगाकर स्वच्छ जल से स्नान किया जाता है, जिससे रोमकूप खुल जाते हैं। साथ ही मन में जमी राग-द्वेष, क्रोध रूपी गंदगी को नाच, गाकर एवं एक-दूसरे से गले मिलकर भुला दिया जाता है। बड़े चाव से तरह तरह की मिठाइयाँ एवं पकवान बनाए जाते हैं, एक दूसरे का मुख मीठा करते हैं।