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Wednesday, April 1, 2020

चमत्कारी भाषा संस्कृत

चमत्कारी  भाषा संस्कृत
भाग 1
जब हम कहते हैं संस्कृत एक मात्र ऐसी भाषा है जिसके प्रत्येक अक्षर या वर्ण का अर्थ विभिन्न अवस्थाओं में परिवर्तित होता है तो पाश्चात्य जगत के लोग नहीं मानते ।आईये हम आज से संस्कृत के उस आयाम को आपलोगों के समक्ष प्रस्तुत करेंगे जो आज तक बहुत कम लोगों को ज्ञात है। हमारे आचार्यों ने ऋषि मुनियों ने संस्कृत में कैसी कैसे विलक्षण प्रयोग किये हैं जिसे देख कर आप चकित रह जाएंगे।

संस्कृत की भाषा एवं व्याकरण को समझना एवं उसके कई अर्थों में से सही अर्थ निकालना एक बौद्धिक व्यायाम है यह हमारे आचार्य आदि ने बखूबी किया है।
कालिदास, भृतहरि, माघ, श्रीहर्स इत्यादि महान संस्कृत के विद्वानों ने अधमकाव्य में रचित काव्य को भी एक उनकहै प्रदान की है, जिसे समझना और अर्थ निकलना एक गुत्थी है एक पहेली है, यह विधा संस्कृत में "चित्रकाव्य" कहलाती है जो अलंकार शास्त्र की एक विधा है।यह विधा विश्व कि किसी भी अन्य भाषा में पाना असंभव है। आईये प्रारम्भ करते हैं आज से हर दिन एक नई जानकारी।
भाग-2

संस्कृत की अद्भुत एवं चमत्कारी रचनाएँ जो संस्कृत को विश्व की अन्य सभी भाषाओं से उत्कृष्ठ बनाती है।
वर्ण चित्र:
वर्णों के एक अद्भुत क्रम में लिख कर एक चित्र बनाना इस विधा की खूबी है, आईये देखते हैं एक उदाहरण , निम्न श्लोक में सभी 33 व्यंजन वर्मा को उनके नियत प्राकृतिक क्रम में रख कर केवल स्वर परिवर्तित कर यह श्लोक बनाया है, क ख ग घ .....ऐसे लिखते हुए ह तक। देखिए कमाल। 

कः खगौघांचिच्छौजा झांञग्योsटौठीडडंढण:।
तथोदधिन पफबार्भीर्मयोsरिल्वाशिषां सह: ।
वह कौन है, पक्षी प्रेमी, कुशाग्रता में शुद्ध, दूसरों की शक्ति को चुरा लेने में माहिर, दुश्मनों के बल को नाश करने वालों में अग्रणी, अति तीव्र निर्भय, वह कौन है जो सागर को भी भर दे? वह माया का सम्राट आशीर्वाद का संग्रहालय और दुश्मनों का नाशक है।
है न यह कलाकारी क्या यह कलाकारी कहीं अन्य किसी भाषा में हो सकती है। नमन हमारी संस्कृति नमन हमारी संस्कृत नमन हमारे पौराणिक आचार्य।
कल दूसरा चित्र देखेंगे.....
भाग-3

संस्कृत की अद्भुत एवं चमत्कारी रचनाएँ जो संस्कृत को विश्व की अन्य सभी भाषाओं से उत्कृष्ठ बनाती है। 
आज हम उस वर्ण चित्र को देखें जो सिर्फ संस्कृत भाषा ही कमाल कर सकती है, 33 वर्णों में से मात्र 3 वर्ण के सहारे पूरा श्लोक रच दिया गया। वे तीन वर्ण हैं द, न, व । 
देवानां नन्दनो देवो नोदनो वेदनिंदिनां
दिवं दुदाव नादेन दाने दानवनंदिनः ।।
दंडी द्वारार्चित काव्यों की समीक्षा नामक पुसितक से मकहाकवि डंडी की चित्रके में से एक
वह परमात्मा ( विष्णु) जो दूसरे देवों को सुख प्रदान करता है और जो वेदों को नहीं मानते उनको कष्ट प्रदान करता है, वह स्वर्ग को उस ध्वनि नाद से भर देता है जिस तरह के नाद से उसने दानव (हिरण्यकशिपु ) को मारा था।
इस तरह हम संस्कृत भाषा के एक से बढ़ कर एक चमत्कार देखेंगे, कल मात्र दो वर्णों से रचे श्लोक को देखेंगे।
धन्यवाद
सुरेश चौधरी।


भाग 4
संस्कृत के चमत्कार
संस्कृत में कितने चित्र काव्य हो सकते हैं जब यह खोज खोज के पढ़ने लगा तो मस्तिष्क के तन्तु हिलने लगे। अद्भुत है हमारी देव वाणी। शब्दों का ऐसा चमत्कार कोई सोच भी नहीं सकता । इस श्रृंखला को सोच था पांच सात दिन में पूरी कर लूंगा पर पता नही अब कब तल चलेगी क्योंकि नित नए चमत्कार मिल रहे हैं।
आईए आज 33 मे से दो वर्ण चुन कर बने इस श्लोक को देखें।
भूरिभिर्भारिभिर्भीराभूभारैरभिरेभिरे
भेरीरे भिभिरभ्राभैरभीरुभिरिभैरिभा: ।
शिशुपाल वध महाकवि माघ ।
अर्थ: निर्भय हाथी जो की भूमि पर भार स्वरूप लगता है अपने वजन के चलते, जिसकी आवाज नगाड़े की टेरेह है और जो काले बादलों सा है वह दूसरे दुश्मन हाथी पर आक्रमण कर रहा है।
आईये कल हम एक ही वर्ण से लिखे श्लोक का आनंद लेंगे तब तक के लिए शुभ रात्रि।

-सुरेश चौधरी 

भाग-5

कल मैंने जब यह पोस्ट डाली तब मित्र यतिष जी ने पूछा शोध कर रहे हैं क्या, शोध तो बड़े बड़े स्कॉलर, पीएचडी होल्डर या विद्वदजन करते हैं मैं इनमें से कोई नहीं बस अति जिज्ञाषु जीव हूँ कुछ पढ़ता हूँ तो उसकी तह तक जाने का प्रयास करता हूँ, इसी प्रयास के तहत उपनिषदों , वेदों को पढ़ा फिर पौराणिक कथाओं और घटनाओं को डिकोड करके उसका सही अर्थ निकालने का प्रयास किया और कर रहा हूँ।
एक लेख जो शायद स्वीडन के किसी शोधकर्ता का है उसे पढ़ रहा था, उन्होंने लिखा कि विश्व में आज भी संस्कृत की 3 करोड़ से ज्यादा पांडुलिपि मौजूद हैं जबकि नालन्दा मैं इतनी ही जला दी गयी थी। उन्होंने यह भी लिखा की "sanskrit has more than 700 hundred metered poetry system " इसका अर्थ शायद यह होगा की संस्कृत में 700 से अधिक छंद हैं। उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए लिखना चाहूंगा कि 1207 छंदों का विवरण तो मेरे पास है।
आईये आज एक वर्ण के श्लोक को देखें , यह श्लोक केवल न वर्ण के प्रयोग से लिखा गया है।
न नोननुन्नो नुनैनो नाना नानानना ननु ।
नुन्नोsनुन्नो ननुन्नैनो नानेना नुन्ननुंन्ननुन ।।
महाकवि भैरवी द्वारा रचित किरातर्जुनीमयी से उधृत।
वह आदमी आदमी नहीं जो एक छोटे आदमी से आहत हो।वैसे ही आदमी आदमी नही जो छोटे आदमी को आहत करे, आहत व्यक्ति आहत नही कहलायेगा अगर उसका स्वामी आहत नहीँ है, और जो आहत करता है वह पहले ही घायल है और वह आदमी नहीं।
क्या प्रेरक संदेश इस वर्ण चित्र में बना है। नमन है संस्कृत जो ऐसे कमाल के सर्जन में समर्थ है।
,-आपका 
सुरेश चौधरी

भाग -6
चमत्कारी भाषा संस्कृत
कल हमने देखा एक वर्ण से पूरे श्लोक का गठन वह वर्ण था न ,मन में यह प्रश्न उठता है कि न वर्ण बहुत कर्ण प्रिय है और खूब व्यवहार में आता है अतः रचना कर ली गयी होगी। पर संस्कृत का चमत्कार सर्वव्यापी है। आज हम एक वर्ण की ही दूसरी रचना देखते हैं और यह वर्ण है द । 
कल बहुत से मित्रों ने संस्कृत के चमत्कार की इस श्रृंखला को बहुत सराहा। आपके प्रोत्साहन से मुझे और अंदर जाकर पढ़ने का हौसला मिलता है। कृपया यह आशीर्वाद देते रहिएगा । आईये अब द वर्ण के श्लोक को पढ़ें:-
दाददो दुददुददादी दाददो दूददीददो:
दुद्यादं दददे दुदै दादाददददोsदद: ।।
महाकवि माघ द्वारा रचित शिशुपाल वध से उधृत।
अर्थ: श्री कृष्ण जो हर वरदान के दाता हैं, जो कुत्सित सोच के विनाशक हैं, जो मन एवं बुद्धि को शुद्ध करने वाले हैं, जिनकी भुजाएं, भ्रष्ट एवं दूसरों को दुख देने वाले व्यक्ति, की संहारक हैं, वे उस व्यक्ति को वेदना देने हेतु अपने तीर छोड़ते हैं।
है न एक अद्भुत चमत्कृत कर देने वाली रचना , आपकी टिप्पणी समीक्षा और सुझाव मुझे आगे लिखने में मार्गदर्शन करेंगे।
आपका 
सुरेश चौधरी
चमत्कृत करती संस्कृत भाषा
भाग-7

कल एक वर्णीय श्लोक पर बहुत से मित्रों ने उत्साहवर्धक प्रतिक्रियायें दी। लोगों में यह भी उत्सुकता रही की जो श्लोक मै उधृत कर रहा हूँ उसके स्रोत क्या हैं, किनके लिखे हैँ, इत्यादि। उपयुक्त जिज्ञासा है, पिछले 7 भागों में जिन 6 श्लोकों को लिखा हूँ उसके श्रोत अवश्य दूंगा पर आज से हर श्लोक के साथ कवि का नाम, विवरण और कृति का नाम और संभव हुआ तो श्लोक संख्या भी देने का प्रयास करूँगा। 
इसके पहले संस्कृत की कुछ बाते बताना चाहता हूँ, मैं पहले ही कह चुका हूँ कि मैं संस्कृत का कोई ज्ञाता नहीं हूँ बल्कि एक अध्येता मात्र हूँ। संस्कृत के महाकाव्यों में तीन महाकाव्यों को वृहदत्रयी कहा गया है वे हैं आचार्य भरवी रचित किरातर्जुनीय, माघ रचित शिशुपाल वध एवं श्रीहर्स द्वारा रचित नैषधीय चरित हैं। ये तीनो महाकाव्य संस्कृत में बाल्मीकि रामायण के स्थान को नहीं पहुंच पाए हों पर उनसे कम भी नहीं हैं। इसी प्रकार तीन महाकाव्यों को लघुत्रयी कहा गया है और ये तीनो महाकाव्य कालिदास द्वारा रचित हैं ये हैं, रघुवंशम, मेघदूतम, कुमारसंभव।
आज जिस श्लोक की चर्चा कर रहा हूँ वह शिशुपाल वध से लिया हुआ है जिसे माघ ने लिखा है, माघ 13वी सदी के कवि थी एवं राजस्थान के श्रीमाली ब्राह्मण परिवार से थे, यह श्लोक 19 वे सर्ग का तीसरा श्लोक है इसकी विशेषता यह है कि इसके चारों चरण में अलग अलग एकवर्णीय हैं ।

जजौजोजाजिजिज्जाजी
तं ततोऽतितताततुत् ।
भाभोऽभीभाभिभूभाभू-
रारारिररिरीररः ॥
भावार्थ: महान योद्धा कई युद्धों के विजेता,शुक्र और वृहस्पति के समान तेजस्वी, शत्रुओं के नाशक बलराम, रणक्षेत्र की ओर ऐसेचले मानो चतुरंगिणी सेना से युक्त शत्रुओं की गति को अवरुद्ध करता हुआ शेर चला आ रहा हो।
वर्णानुसार अर्थ समझ आये तो मुझे भी सूचित कीजियेगा। अर्थ मैने किसी के भाष्य से लिया है।
नमन, आपका
--सुरेश चौधरी
चमत्कृत करती संस्कृत भाषा
भाग-8
स्थान चित्र
आज हम जानेंगे संस्कृत भाषा मे कैसे स्थान चित्र का प्रयोग किया गया है, काव्य की भाषा मे स्थान चित्र उसे कहा गया है जहां केवल एक व्यंजन समूह का प्रयोग करके या किसी व्यंजन समूह को छोड़ कर के श्लोक लिखा जाय, प्रस्तुत श्लोक केवल कण्ठवय समूह के वर्ण को प्रयोग करके लिखा गया है।

अगा गाङ्गागाङ्गकाकाकगाहकाघककाकहा
अहाहाङ्क खगाङ्कागकङ्कागखगकाकक।
ओह तुम कई देशों में यात्रा करने वाले यात्री, घने मोड वाली गङ्गा की तीव्र लहरों में नहाने वाले, तुम्हे संसार के दुखों भरे नाद का कोई ज्ञान नहीं है, तुम में मेरु पर्वत तक जाने की क्षमता है, तुम इन चंचल इंद्रियों के बसमे नहीं हो, तुम पाप को नाश करने वाले हो तुम इस धरा पर आ गए हो। 
यह श्लोक मैने जर्मनी के शोध के एक पत्र से लिया है जिसका शीर्षक है "INTERESTING AND AMAZING CREATION OF SANSKRIT"
आशा है यह श्रृंखला भी आप को आकर्षक लगी होगी, मैने इस श्लोक का श्रोत जानने की बहुत कोशिश की पर मुझे श्रोत नहीं मिला। किसी मित्र को ज्ञात हो तो बताने की कृपा अवश्य करें ।
आपका 
सुरेश चौधरी

चमत्कृत करती संस्कृत भाषा
भाग-9

कल की पोस्ट का श्रोत और रचियेता का ज्ञान मुझे नहीं है आदरणीय बुद्धिनाथ मिश्र जी ने कहा अगर शुद्ध श्लोक मिले तो शायद वे कुछ मदद कर सकें । मुझे बहुत अच्छा लगा की मेरी पोस्ट को इतने बड़े बड़े साहित्यकार मनीषी ध्यान से पढ़ रहे हैं। मैं आप सब गुणीजनों से यही निवेदन करूँगा कि आप अपना स्नेह यूँ ही मुझ पर बनाएं रखें । आज स्वर चित्र के बारे में कुछ विचार कर लें,
चित्रकवित्व मे शब्दचित्र एक विभाग है फिर उस मे कई शाखाएं हैं इन शाखाओं मे स्वरचित्र एक है
स्वर चित्र में भी दो विभाग है एक ह्रस्व स्वर और दूसरा दीर्घ स्वर। ह्रस्व स्वरचित्र मे एक स्वर , दोस्वर लेकर श्लोक बनना,ऐसा तीन, चार स्वरों को लेकर श्लोक बनाना एक कला ही कही जा सकती है।
आईये हम इसी कला में महाराजा भोज द्वारा रचित 
सरस्वतीकंठाभरण से यह श्लोक देखें इसमे दो स्वर लेकर श्लोक बनाया गया है एक स्वर 'इ' है और दूसरा 'अ'
श्लोक के आदि चरण में  इ स्वर को उत्तर चरण में  अ स्वर का प्रयोग हुआ है ।
इस श्लोक को ह्रस्व द्विस्वर चित्र कहते हैं –
क्षिति स्थिति मिति क्षिप्ति विधि विन्निधि सिद्धि लिट्
मम त्र्यक्ष नमद्दक्ष हर स्मरहर स्मर
ओ स्वामी शिव तीन नयनो के धारक, अस्तित्व के ज्ञाता, सृष्टि के मापक एवं संहारक, अष्ट सिद्धि नव निधि के मालिक, आप वे हैं जिसने दक्ष एवं कामदेव का संहार किया।
पुनः मैं आग्रह करूँगा की मेरा प्रयास संस्कृत को जन जन तक पहुंचने का है इस प्रयास को आप सब गति दें ताकि देववाणी संस्कृत विश्वव्यापी बने।आप सभी से आग्रह है कि आपके पास जो भी संस्कृत से संबंधी जानकारी है जो जनहित के लिए उपयोगी है या मिले तो मुझे भेजने की कृपा करें।

आपका

सुरेश चौधरी

चमत्कृत करती भाषा-संस्कृत
भाग-10

आईये आज महासुभाषित सागर से पुनः सरस्वतिकन्ठाभरण के एक श्लोक लिए हैं जो केवल एक स्वर पर आधारित है, यहां यह बताना चाहूंगा की इस ग्रंथ की रचना 13वी सदी में हुई थी। चित्रकवित्व मे स्वरचित्र का यह श्लोक अनुपमेय है 
इस श्लोक मे चार पादों मे एक स्वर - उ लेकर रचना की गयी है 
उरुगुं द्युगुरुं युत्सु चुक्रुशु स्तुष्टुवु: पुरु
लुलुभु: पुपुर्षुर्मुत्सु मुमुहुर्नु मुहुर्मुहु:
अर्थ: उरु विवेकशील को कहते हैं,
वाणी के स्वामी वृहस्पति की शरण में देवगण जब युद्ध में प्रस्थान किये तब, आये,जो की स्वर्ग में देवताओं के उपदेशक हैं। उन्होंने वृहस्पति की प्राथना की ताकि वे ऐसा करके खुश और शकिशाली रहें एवं बार बार बेशुध न हों।
उपरोक्त श्लोक का वाचन एक टोंग ट्विस्टर है, किसी को अपनी वाणी शुद्ध करनी हो तो ऐसे श्लोक को जोर जोर से पढ़े उच्चारण अपने आप शुद्ध हो जाएगा।


संस्कृत में अनेकों ऐसे कमाल छिपे हैं हमे बस तलाशने की जरूरत है। 
सादर नमन।
आपका
सुरेश चौधरी

चमत्कृत करती भाषा संस्कृत
भाग -11
आज आपको संस्कृत भाषा के ऐसे चमत्कार के बारे में बताते हैं जिसे जान कर आप दांतों तले अंगुली दबा लेंगे, यह श्लोक एक ही व्यंजन और एक ही स्वर में लिखा गया है, जब तक आप इसका संधि विच्छेद नहीं करेंगे तब तक आपको यह बकवास लगेगा,
yayayayayayayayayayayayayayayaya
yayayayayayayayayayayayayayayaya

कूल, ना? ओह, रुकिए ... यह गलत स्क्रिप्ट में है। देवनागिरी में यह रहा:
यायायायायायायायायायायायामायाया
यायायायायायायायायामायायामाया ।।
शायद यह अभी भी स्पष्ट नहीं है। तो एक स्पष्टीकरण क्रम में है।
क्या किया जाना चाहिए वाक्य को ठीक से तोड़ना है - संस्कृत में अवाय नामक प्रक्रिया:
यायाया, आयो, यायाया, आयो , आया
 

, अयाय, अयाय, अयाय, अयाय
अयाय, अयाया, यायाय, आयायाय, आया, या , या, या, या, या, या, या।
या अंग्रेजी में समतुल्य ('ए' नीचे का अर्थ 'आ' ध्वनि के लिए होता है जैसे cAr में):
yAyAyA, Ay, yAyAyA, Ay, AyAy, ayAya, ayAy, ayAy, ayAy, ayAy,
ayAy, ayAyA, yAyAy, AyAyA, AyAy, yA, yA, yA, yA, yA, yA, yA, yA, yA
और जब आप इसे ठीक से तोड़ते हैं तो कविता से अर्थ पता चलता है:
भगवान को सुशोभित करने वाली पादुका, जिसे सभी प्राप्त करने की चाह रखते हैं, जो श्रेष्ठ है, जो ज्ञान देती है, जो भगवान को प्राप्त करने की इच्छा का कारण बनती है, जो शत्रुतापूर्ण व्यवहार करनेवाले सभी को दूर करती है, जो प्रभु को प्राप्त करने का साधन है और जो भव सागर यात्रा करने के लिए उपयोग की जाती है सभी स्थानों तक पहुँचाती है - यह पादुका भगवान विष्णु के लिए हैं
प्राचीन काल में कवि मनोरंजन हेतु ऐसी रचनाएँ ल8कहा करते थे फिर उसे लोगों को हल करने को कहते थे जो एक पहेली हो होती थी, इसे काव्य मनोरंजन कहते थे।
प्रस्तुत श्लोक वेदांत देशरी नामक महान कवि की है जिसका रचना काल ( 1269 -1313) था इनकी यह पुस्तक पादुका सहस्त्रं बहित विख्यात हुई थी क्योंकि इसके 1000 श्लोक सभी चित्र काव्य में लिखे गए थे।
कल पुनः एक नए चमत्कार के साथ प्रस्तुत होऊंगा , तब तक के लिए नमस्कार।

आपका
सुरेश चौधरी

चमत्कृत करती भाषा संस्कृत
भाग-12

पिछली श्रृंखला ने हमने देखा मात्र एक वर्ण य के साथ मात्र आ स्वर जोड़ कर कैसे श्लोक बना था। आज एक चमत्कार और देखते हैं ।
स्वर और व्यंजनों को आपस में खेल खिला कर प्राचीन साहित्यकारों ने चमत्कृत करने वाले श्लोक लिखे हैँ, प्रस्तुत श्लोक क और ल को मिलाकार एक विशेष ध्वनि का निर्माण करता है इस प्रकार के प्रयोग को संस्कृत में अमिता कहते हैं जहाँ एक ही वर्ण बार बार प्रयोग किया जाता है।
इस श्लोक मे दो व्यजनों के अनेक पर्याय आये हैं
इस प्रकार कि रचना शब्दालंकार मे वृत्त्यनुप्रास कहते हैं. देखिए 
बकुलकलिकाललामनि कलकण्ठीकलकलाकुले काले काले
कलया कलावतोsपि हि कलयति कलितास्त्रतां मदन:
अर्थ:
मदन, प्रेम के देवता, चांद के दाग को भी खूबसूरत शस्त्र की तरह प्रयोग करते हैं जब बकुल के पौधे चमकते हैं अपनी कलियों के संग, जब कोयल कूकती हैं, नारियां अपनी मधुर आवाज के साथ वातावरण को चमत्कृत कर भर देती हैं ।
इस श्लोकको पढ़िए आप स्वयं महशुस करेंगे की कितनी खनखनाती मधुर ध्वनि निकल रही है।
प्रस्तुत श्लोक सुभाषित नामक पुस्तक से लिया है जो श्लोक संख्या 303 में लिखा है। रचेता का नाम मुझे नहीं मिला पुस्तक अरविंदो आश्रम पुडुचेरी से प्रकाशित पुस्तक "वंडर, दैट इज संस्कृत" का हिस्सा है।

नमन 
आपका
सुरेश चौधरी


चमत्कृत करती भाषा संस्कृत
भाग-13
आज संस्कृत का एक वह पहलू बताने जा रहा हूँ जो न केवल संस्कृत की भाषा समृद्धता को दर्शाता है बल्कि विज्ञान का चमत्कार भी है , कल्पना कीजिये पाई का शुद्ध मूल्य आधुनिक विज्ञान जगत हाल में निकाल सका जबकि भारतीय आचार्य एवं संस्कृत की समृद्ध शैली इसे ईसा से पूर्व अपने साहित्य में छिपा रखी थी बस इसे डिकोड करने की आवश्यकता थी। न जाने ऐसे कितने रहष्य छिपे हैं संस्कृत भाषा में।
संस्कृत भाषा की समृद्धताऔर इसकी वाक्य संरचना का अद्भुत उदाहरण निम्नलिखित श्लोक है जिसमे pi का मूल्य वह भी 31 अंकों तक बिल्कुल शुद्ध निकाला गया, संस्कृत में एक संख्या प्रणाली है जिसे कटपय्यादि प्रणाली कहा जाता है। यह प्रणाली कंप्यूटर विज्ञान में ASCII प्रणाली के समान है, वर्णमाला के हर वर्ण के लिए एक संख्या निश्चित की जाती है और जब श्लोक के अक्षरों को उनके क्षेपणादि संख्याओं से बदल दिया जाता है, इस प्रसार इस प्रणाली से जब हम अंकों को इस श्लोक में परिवर्तित करते हैं तो हमें 31 अंक तक pi का मान एकदम सही प्राप्त होता है।
गोपीभाग्यमधुव्रात-शृङ्गिशोदधिसन्धिग । खलजीवितखाताव गलहालारसंधर ॥
हे कृष्ण, गोपियों के भाग्य, राक्षस मधु के संहारक, मवेशियों के रक्षक, वह जिसने समुद्र की गहराई में जाकर करतब दिखाया, पापियों का नाश करने वाले, कंधे पर हल धारण करने वाले और अमृत पात्र को धारण करने वाले (आप) रक्षा करें ।
ग्रहचारीबन्धन 683 ई.पू. और 869 ई.पू. लघूभासकरिवीकरण में निश्चित संख्यावाचक संकेतन की बात कही गयी है, जो कताप्यादि सांख्य के नाम से जाना जाता है। 
इस प्रणाली के तहत, स्क्रिप्ट के प्रत्येक और प्रत्येक वर्णमाला पर एक संख्या अंकित होती है, जो कि कंप्यूटर में ASCII प्रणाली के समान ही है। जिसकी यहाँ दर्शाया गया है:
1 2 3 4 5 6 7 8 9 0
क ख ग घ अं च छ ज झ यं
ट ठ ड ढ ण त थ द ध न 
प              फ             ब              भ              म 

य र ल व श ष स ह

उपरोक्त विधि के आधार पर, यदि श्लोक में अक्षरों को संबंधित संख्याओं द्वारा प्रतिस्थापित करते है, अर्थात 3 से 'गो', 1 से 'पी', 4 से 'भा' और इसी तरह, करें तो निम्नलिखित परिणाम प्राप्त होगा, 31415926535897932384626433832792 यह संख्या, स्पष्ट रूप से, 32 दशमलव स्थानों तक पाई का मूल्य है। 
सचमुच यह चमत्कृत करने वाली संस्कृत ही कर सकती है। 
अगली कड़ी में हम अनुलोम विलोम के कुछ उदाहरण देखेंगे।
नमन 
आपका सुरेश चौधरी
चमत्कृत करती संस्कृत
भाग-14
कुछ दिनों पूर्व व्हाट्सएप्प पर राघवयादवीयम नामक पुस्तक जिसे कांचीपुरम के कवि वेंकध्वरी ने 17 वी सदी में लिखा था बहुत जोरों से वायरल हुई और लोग इस कला को देख अचंभित रह गए थे । वास्तव में अनुलोम विलोम लिखने की प्रथा अति प्राचीन है जो ईसा से पूर्व भी पाई गयी है। वेदांत देशरी, दंडी, माघ, श्री हर्ष, कालिदास इत्यादि सब ने इस विधा में लिखने का प्रयास किया है। अंग्रेज़ी में इसे palindromes कहते हैं, मतलब आगे से पढ़े या पीछे से एक ही अर्थ निकले जैसे बचपन मे इस प्रकार की पहेली सभी ने बुझाई होगी, मलयालम, eve, noon , जलज, नयन इत्यादि । परंतु पूरा श्लोक मिरर इमेज हो यह बड़ी आश्चर्य की बात है यह संस्कृत में ही सम्भव है ।
आईये एक श्लोक देखते हैं , यह भी माघ रचित शिशुपाल वध के 19 वे सर्ग से लिया गया है श्लोक संख्या 44 है।
वारणागगभीरा सा साराभीगगणारवा। 
कारितारिवधा सेना नासेधा वारितारिका॥
इसमे श्लोक के चार चरणों में दूसरा चरण पहले चरण का प्रतिबिम्ब है और चौथा चरण तीसरे का।और दोनों बिम्बो के अर्थ बिल्कुल अलग हैं एवं वे पूर्ण वाक्य हैं।
अर्थ देखिए:
इस सेना का सामना करना बहुत मुश्किल है जिसमे बड़े बड़े पर्वताकार हाथी हैं, यह सेना बहुत महान है और ऐसा नाद करती है जिससे लोगों के दिल दहल जाएं, वह अपने दुश्मनों का वध कर दी।
दूसरा एक श्लोक और देखें इसमे पहली पंक्ति का विलोम दूसरी पंक्ति है इसे पदभ्रमक भी कहते हैं।

निशितासिरतोऽभीको न्येजते ऽमरणा रुचा
चारुणा रमते जन्ये को भीतो रसिताशिनि
अर्थ:
ओ अविनाशी, सच में, आप तीव्र ढ़हर वाली तलवार को बहुत चाहते हो, इस युद्ध में निर्भयी व्यक्ति कभी भी डरपोक से नहीं कांपता, जो की सुंदर रथों से सज्जित है और मानव को डराने को तत्पर दानवों से भरी।

यह चमत्कार संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा में ही हो सकता है। किसी भी अन्य भाषा में आप ऐसी भाषा विद्वत्ता नहीं पाएंगे।
नमस्कार! कल हम कुछ नए चमत्कार को देखेंगे।
आपका सुरेश चौधरी


चमत्कृत करती भाषा संस्कृत
भाग-15

नमस्कार! मित्रों आज संस्कृत के एक ऐसे चमत्कार के बारे मे चर्चा करेंगे जिसे सोच कर ही हम आश्चर्य चकित हो जाएंगे। हिंदी और संस्कृत के विद्यार्थियों ने यमक अलंकार पढ़ा है इसमे एक शब्द के अलग अलग अर्थ होते हैं , पर क्याआप सोच सकते हैं कि एक वाक्य के भी अलग अलग अर्थ कैसे हो सकते हैं। जी हैं मैं सच कह रहा हूँ, इसे महा यमक कहते हैं, प्राचीन आचार्यों ने इसका प्रयोग शब्दचित्र के रूप मे किया है, प्रस्तुत है एक ऐसा ही श्लोक
सभासमानासहसापरागात्
सभासमाना सहसा परागात् ।
सभासमाना सहसापरागात्
सभासमाना सहसापरागात् ॥
–चित्रकाव्यम्
सरस्वती कंठाभरण नामक पुस्तक से यह श्लोक मैंने लिया है, श्लोक संख्या 202 । शायद इसके रचियेता प्रज्ञा चक्षु रामभद्राचार्य जी हैं।
इसके प्रत्येक चरण का अर्थ अलग अलगहै ,जब तक इस के चरण के वर्णों की वियुक्त नहीं करे गए तब तक हम अर्थ स्पष्ट नहीं निकाल पाएंगे आईये इसके वर्णों को वियुक्त करते हैं।
1. सभा-मान-आस:-हस ( ऐते: सह वर्तत इति) , अपरागम अत्ति
2. सभासमाना ( भासमानै: सह वर्तत इति ) सहसा ( मार्गशीर्षेण हेतुना) परागत (रज: कणां) अतति (प्राप्नोति परागत)
3. भा (कांति:) समाना(सरूपा, तै : सह वर्तते) सभासमाना । सहसा । अपरागत (अपरस्मात पर्वतात )
4. एवं भुता असमाना-सभा-सहसा-परागत
अर्थ:
स्वाभिमान,, कांति, आनंद व आक्रामक-प्रवृति से युक्त प्रतिभाशाली लोगोंकी सभा, मार्गशीर्ष महीने में जब पर पर्वत शिखर से प्रस्थान करने लगी टौ उनके तितरबितर होने से हवा में। चारों तरफ धूल फैल गयी।

नमन है,, धन्य है देववाणी संस्कृत इसके आगे पिछेकहिं भी कोई भी भाषा नहीं टिक सकती ,महा यमक के वहां के उदाहरण हैं कल एक और श्लोक पर चर्चा करेंगे तब तक केलिए नमन। 

आपका सुरेश चौधरी
चमत्कृत करती भाषा संस्कृत
भाग -16
अभी तक हमने संस्कृत काव्य के जितने श्लोक पढ़े जिसे हम चमत्कार कहते हैं वे सब ईसा पूर्व के या ईसा से सातवी आठवी शताब्दी के हैं एक कवि 13वी शताब्दी के भी हैं। संस्कृत में जो महाकाव्य बहुत चर्चित रहे उनमे लघुत्रयी कहते हैं वे हैं 
कुमारसम्भावम
मेघदूतम
3. रघुवंशम

ये तीनो महा काव्य कालिदास के लिखे हुए हैं और इनका रचना काल 5वी सदी है ।
जबकि जिन्हें वृहदत्रयी कहते हैं वे हैं
1.किरातर्जुनीयं-भारवि 6 वी सदी
2.शिशुपाल वधम-माघ कवि 7/8वी सदी
3.नैषधियचरितं-श्रीहर्स-12 वी सदी
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या संस्कृत की रचनाएँ 12 वी सदी के बाद लुप्त हो गयी हैं, क्या संस्कृत में कोई ऐसे कवि नहीं हुए जो महाकाव्य या संस्कृत में ऐसी कृति लिखें जो कालजयी हो। 
जी नहीं, 21 वे सदी में हुए हैं संत जगद्गुरु श्री रामभद्राचार्य जी महाराज जिन्होंने रामजन्म भूमि मुकदमे की दिशा अपने अकाट्य तर्कों से हिंदुओ के पक्ष में मोड़ दी थी, ये प्रज्ञा चक्षु हैं जन्म से ही नहीं देख सकते पर सारे वेद, सारे पुराण, उपनिषद इत्यादि इन्हें कंठस्थ हैं।इन्होंने एक महाकाव्य लिखा 
जो 21 सर्ग में समाहित है, अन्य माह काव्य 8, 9, 12 20 , 22में हैं इन्होंने कहा कि 21में कोई नहीं अतः वे 21 का लिखेंगे और अतुलनीय महाकाव्य श्री भार्गवराघवीयम नाम का काव्य लिखा जिसमे श्री राम एवं श्री परसुराम की कथा है। अन्य महाकाव्यों से बढ़ कर इन्होंने इस महाकाव्य में 40 प्राकृत छंदों का प्रयोग किया एवं प्रायः सभी अलंकारों का शब्दचित्रों का प्रयोग किया।
आईये इस महाकाव्य के एक महायमक अलंकार को देखें:
पहले जानते हैं महायमक किसे कहते हैं, महायमक अलंकार संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में एक ऐसा अलंकार है, जिसमें समान शब्द एक से अधिक बार प्रयुक्त होता है, किन्तु प्रत्येक शब्द का अपना एक विशेष अर्थ होता है। महाकाव्य के तीसरे सर्ग से उद्धृत निम्नलिखित पद्य (३.२६) में चार चरण हैं, किन्तु एक ही अक्षर से चार विभिन्न अर्थों का तात्पर्य निकलता है, जिनमें से एक-एक अर्थ की प्रत्येक चरण के लिए कवि ने सुन्दर संयोजना की है। इस प्रकार संपूर्ण काव्य में प्रयुक्त चतुर्विध यमक के प्रयोग को महायमक कहते हैं।
ललाममाधुर्यसुधाभिरामकं ललाममाधुर्यसुधाभिरामकम्।
ललाममाधुर्यसुधाभिरामकं ललाममाधुर्यसुधाभिरामकम् ॥
“उन्हें, जो (भगवान् शंकर) भाल पर त्रिपुण्ड के सौन्दर्य से शोभायमान हो रहे थे और जिनके आराध्य देव भगवान श्रीराम थे, उन्हें, जो आभूषणों की शोभा की धुरी (नवोदित चन्द्र के रूप में) धारण कर रहे थे और जो इस आनन्द से मनोहारी दृष्टिगत हो रहे थे, उन्हें जो अपनी श्रेष्ठता की शक्ति के साथ धर्म के दायित्व के वाहक एवं रक्षक बने हुए थे; और उन्हें, जिन्हें वृषभ (जो धर्म का प्रतीक है) के चिह्न की दीप्ति के आनन्द के कारण भगवान श्रीराम की शरण प्रदान की गई थी। ॥ ३.२६ ॥
जगदगुरुरंभद्राचार्य जी जैसे प्रकांड विद्वान के रहते हम कभी नहीं कह सकते की संस्कृत विलुप्त हो रही है,किसी को भ्रम है तो वे इनके ग्रंथ अवश्य पढ़ें और अपने दांतो तले अंगुली दबा चमत्कृत होते रहें।

नमन। 
आपका
सुरेश चौधरी


चमत्कृत करती भाषा संस्कृत 
भाग -17
पिछली श्रृंखला में हमने जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी द्वारा रचित महाकाव्य श्री भार्गवराघवीयम के बारे में जाना और उसमे लिखा महायामक हमने पढ़ा, आज हम इसी महाकाव्य से उधृत एकाक्षरी श्लोक को पढ़ते हैं , यह चाटकर ७ वी सदी के माघ के काव्यों में देखने को मिला था, हैरानी की बात है इस युग में भी ऐसे महा पंडित हैं, क्या इनके समकक्ष कोई और दूसरा कवि होगा? आज भारत को बहुत आवश्यकता है ऐसे प्रकांड विद्वानों की ताकि संस्कृत पुनः फले फुले |
श्रीभार्गवराघवीयम् के बीसवें सर्ग में तीन एकाक्षरी श्लोकों (२०.९२–२०.९४) की रचना की गई है, जिनमें मात्र एक व्यंजन का प्रयोग किया गया है।
कः कौ के केककेकाकः काककाकाककः ककः।
काकः काकः ककः काकः कुकाकः काककः कुकः ॥
काककाक ककाकाक कुकाकाक ककाक क।
कुककाकाक काकाक कौकाकाक कुकाकक ॥
लोलालालीललालोल लीलालालाललालल।
लेलेलेल ललालील लाल लोलील लालल ॥
“ परब्रह्म (कः) [श्री राम] पृथ्वी (कौ) और साकेतलोक (के) में [दोनों स्थानों पर] सुशोभित हो रहे हैं। उनसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में आनन्द निःसृत होता है। वह मयूर की केकी (केककेकाकः) एवं काक (काकभुशुण्डि) की काँव-काँव (काककाकाककः) में आनन्द और हर्ष की अनुभूति करते हैं। उनसे समस्त लोकों (ककः) के लिए सुख का प्रादुर्भाव होता है। उनके लिए [वनवास के] दुःख भी सुख (काकः) हैं। उनका काक (काकः) [काकभुशुण्डि] प्रशंसनीय है। उनसे ब्रह्मा (ककः) को भी परमानन्द की प्राप्ति होती है। वह [अपने भक्तों को] पुकारते (काकः) हैं। उनसे कूका अथवा सीता (कुकाकः) को भी आमोद प्राप्त होता है। वह अपने काक [काकभुशुण्डि] को पुकारते (काककः) हैं और उनसे सांसारिक फलों एवं मुक्ति का आनन्द (कुकः) प्रकट होता है। ॥ २०.९२॥ ”
“ हे मेरे एकमात्र प्रभु ! आप जिनसे [जयंत] काक के (काककाक) शीश पर दुःख [रूपी दण्ड प्रदान किया गया] था; आप जिनसे समस्त प्राणियों (कका) में आनन्द निर्झरित होता है; कृपया पधारें, कृपया पधारें (आक आक)। हे एकमात्र प्रभु! जिनसे सीता (कुकाक) प्रमुदित हैं; कृपया पधारें (आक)। हे मेरे एकमात्र स्वामी! जिनसे ब्रह्माण्ड (कक) के लिए सुख है; कृपया आ जाइए (आक)। हे भगवन (क)! हे एकमात्र प्रभु ! जो नश्वर संसार (कुकक) में आनन्द खोज रहे व्यक्तियों को स्वयं अपनी ओर आने का आमंत्रण देते हैं; कृपया आ जाएँ, कृपया पधारें (आक आक)। हे मेरे एकमात्र नाथ ! जिनसे ब्रह्मा एवं विष्णु (काक) दोनों को आनन्द है; कृपया आ जाइए (आक)। हे एक ! जिनसे ही भूलोक (कौक) पर सुख है; कृपया पधारें, कृपया पधारें (आक आक)। हे एकमात्र प्रभु ! जो (रक्षा हेतु) दुष्ट काक द्वारा पुकारे जाते हैं (कुकाकक); [कृपया पधारें।] ॥ २०.९३॥ ”

“ हे एकमात्र प्रभु! जो अपने घुँघराले केशों की लटों की एक पंक्ति के साथ (लोलालालीलल) क्रीड़ारत हैं; जो कदापि परिवर्तित नहीं होते (अलोल); जिनका मुख [बाल] लीलाओं में श्लेष्मा से परिपूर्ण है (लीलालालाललालल); जो [शिव धनुर्भंग] क्रीड़ा में पृथ्वी की सम्पत्ति [सीता] को स्वीकार करते हैं (लेलेलेल); जो मर्त्यजनों की विविध सांसारिक कामनाओं का नाश करते हैं (ललालील), हे बालक [रूप राम] (लाल)! जो प्राणियों के चंचल प्रकृति वाले स्वभाव को विनष्ट करते हैं (लोलील); [ऐसे आप सदैव मेरे मानस में] आनन्द करें (लालल)। ॥ २०.९४॥
आपने स्वयं अनुभूत किया होगा इस चमत्कार को, कल से हम भाषा के एनी चित्रों को देखेंगे , तब तक के लिए सादर अभिवादन |
आपका सुरेश चौधरी 

4 comments:

  1. बहुत सुंदर,, भाषाओं की जननी संस्कृत के ऐसे चमत्कार को हमारा प्रणाम

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  2. बहुत रोचक और सुंदर जानकारी
    जयतु संस्कृतम्

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